हिंदुस्तान के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में ऐसे अनेक इतिहास प्रसिद्ध युद्ध हैं जिनका नाम इतिहास के पन्नों में सदा के लिए अमर हो गया। उनमें से एक प्रसिद्ध युद्ध था झांसी का युद्ध, जो वर्ष 1857 में लड़ा गया। आज हम आपको बताएंगे कि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने दुश्मनों से मुकाबला करने के लिए एक ऐसी चाल चली, जिससे अंग्रेज भी चक्कर में पड़ गए।
दरअसल उन्होंने अपनी सेना में एक ऐसी स्त्री को भर्ती किया, जिसका चेहरा रानी लक्ष्मीबाई से हू ब हू मिलता था। झांसी की लड़ाई में अंग्रेज़ सेनानायक समझ ही नहीं पाते थे किव हाँ असली रानी लक्ष्मीबाई कौन है ? आज आप जानेंगे कि रानी लक्ष्मीबाई की सेना में वह स्त्री कौन थी, जिसका चेहरा झांसी की रानी लक्ष्मी बाई से लगभग पूरी तरह मिलता था। जिसे देखकर कोई भी धोखा खा सकता था ।
दुश्मनों से युद्ध में मुकाबले के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी सेना को मजबूत बनाने के लिए वह रास्ता भी चुना जो सामान्यतः कोई सोंच भी नहीं सकता था। जिसके कारण दुश्मनों के छक्के छूट गए। यह बात है वर्ष 1857 की,जब झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को यह पता लगा कि उनके पड़ोसी राज्य ओरछा और दतिया के शासक कभी भी उनकी झांसी का हमला कर सकते हैं।
तब रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत करने के लिए वह रास्ता चुना जो कोई सोंच भी नहीं सकता था। उन्होंने सबसे पहले झाँसी राज्य की उन वीर स्त्रियों का आह्वान किया जो युद्ध भूमि में उतरने के लिए तैयार हों रही थीं। रानी लक्ष्मीबाई के लिए युद्ध की रणनीति बनाने का यह कार्य बिल्कुल नया था।
पहले तो उनके राज्य के ही कुछ लोगों ने सोचा की झाँसी की रानी का यह नया कदम झांसी के भविष्य के हित के लिए कदापि उचित नहीं है, लेकिन रानी लक्ष्मीबाई को ऐसा लगता था कि वह अपनी तरह ही सैकड़ों रानी लक्ष्मी बाई तैयार कर सकती हैं। उनका यह आत्मविश्वास ही वास्तव में रंग लाया। उनके आवाहन पर झांसी राज्य की सैकड़ों स्त्रियां झाँसी के दुश्मनों से लोहा लेने के लिए तैयार हो गईं।
रानी लक्ष्मीबाई ने अपने राज्य की चुनी हुई साहसी महिलाओं को एक दिन प्रातः काल अपनी महल के प्रांगण में एकत्र होने के लिए कहा। वे सभी महिलाएं झांसी के किले के प्रांगण में इकट्ठे हो गईं। रानी ने जब उन सबके हाथों में एक एक तलवार दी, तो यह दृश्य अचंभित कर देने वाला था। क्योंकि चूड़ी वाले हाथों में तलवार हिंदुस्तान की इतिहास में अभूतपूर्व घटना थी।
आरंभ में रानी लक्ष्मीबाई को स्वयं लगा कि यह कार्य बहुत दुष्कर है, लेकिन असंभव कार्य को संभव करना उन्हें आता था। इसलिए रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत न हारी, जब भी वह महिलाएं निराश होती तो रानी लक्ष्मीबाई उनमें उत्साह का मंत्र भरतीं। क्योंकि उन्हें झांसी के हर घर की लक्ष्मी को महारानी लक्ष्मीबाई की तरह शेरनी जो बनाना था।
रानी लक्ष्मीबाई ने जब उन स्त्रियों को घुड़सवारी से परिचित कराया तो घोड़े की सवारी उनके लिए आसान नहीं थी। न जाने कितनी स्त्रियों को घोड़ों ने जमीन पर पटक दिया। लेकिन रानी लक्ष्मीबाई की प्रेरणा से उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और देखते ही देखते वह सभी कुशल सैनिक बन गई ।
झलकारी बाई कौन थी
अब हम आपको रानी लक्ष्मीबाई के सेना की उस साहसी स्त्री के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे शायद विधाता ने रानी लक्ष्मीबाई की सेना के लिए ही पैदा किया था। उस वीरांगना का नाम था झलकारी बाई, झलकारी बाई की छवि बिल्कुल झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से मिलती- जुलती थी। रानी लक्ष्मीबाई ने झलकारी बाई को अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया।
झलकारी बाई और रानी लक्ष्मीबाई का मिलना अदभुत संयोग था। बचपन में ही एक तेंदुए से भिड़ जाने वाली झलकारीबाई रानी लक्ष्मीबाई के गौरी पूजा के अवसर पर अन्य महिलाओं के साथ किले के अंदर गयीं, जब रानी लक्ष्मीबाई ने झलकारी बाई को देखा तो आश्चर्य चकित रह गयीं।
उन्हें लगा कि वह दर्पण निहार रहीं हैं। यह कुदरत का अदभुत करिश्मा था। रानी लक्ष्मीबाई ने झलकारी बाई को अपनी सेना में भर्ती ही नहीं किया बल्कि उसे तलवार, भाला ,बंदूक आदि चलाने का प्रशिक्षण दिया। उसे घुड़सवारी से परिचित कराया। झलकारी बाई भी रानी लक्ष्मीबाई की तरह बचपन से ही अस्त्रों- शस्त्रों से खेलीं थीं। कहना न होगा कि झाँसी की भूमि की रक्षा के लिए एक नहीं दो- दो रानी लक्ष्मीबाई और तैयार हो गयीं थीं।
वर्ष 1858 में जब ब्रिटिश सेना ने झांसी पर आक्रमण किया तो अंग्रेजों को भारत की नारी शक्ति का आभास हुआ। युद्ध के दौरान जब अंग्रेज रानी लक्ष्मीबाई की सेना की सेनापति झलकारी बाई को देखते हैं तो यही सोचते कि कहीं यही तो रानी लक्ष्मीबाई नहीं।
रानी लक्ष्मीबाई का चेहरा और झलकारी बाई का चेहरा एक जैसा होने के कारण अंग्रेज चक्कर में पड़ जाते थे। स्त्री को कमजोर मानने वाले समाज के लिए झाँसी का संग्राम चकित कर देने वाला युद्ध था। यदि रानी लक्ष्मीबाई के कुछ लोग विश्वासघात नहीं करते तो अंग्रेज कभी झाँसी के किले पर कब्जा नहीं कर पाते। और फिर शायद भारतवर्ष का इतिहास कुछ और ही होता।
झांसी का युध्द अंग्रेजों को रानी लक्ष्मीबाई से लगभग 15 दिनों तक लड़ना पड़ा था तब जाकर भी अंग्रेज सैनिकों को सफलता हासिल होने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। तब अंग्रेजों ने झाँसी के कुछ लोगों को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। विश्वासघात ने रानी के सैन्य शक्ति को कमजोर कर दिया।
अपने दुष्चक्र से अंग्रेज झांसी के शहरों पर अपना कब्जा तो पा गये लेकिन रानी लक्ष्मीबाई इस बीच युद्ध भूमि से निकल पड़ी क्योंकि उन्हें अपनी कमजोर पड़ रही सैन्य शक्ति को फिर से मजबूत करना था। इस समय रानी की एक चाल ने अंग्रेजों को चकमे में डाल दिया।
रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी भेषभूषा, अपनी हमशक्ल झलकारी बाई को पहना दीं और स्वयं चुपके से रणभूमि से निकल पड़ी। अंग्रेज सेनापति सोंच रहे थे कि वे रानी लक्ष्मी बाई से युध्द कर रहें हैं। लेकिन वास्तविकता कुछ और थी। रानी लक्ष्मीबाई ने उन भारतीय राजाओं को अपने साथ लिया जो उनकी सहायता कर सकते थे।
रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी और तात्या टोपे की सैन्य शक्ति को एकजुट किया और ग्वालियर के किले पर अपना परचम लहरा दिया। लखनऊ 18 जून 1858 का वह दिन था जब रानी लक्ष्मीबाई एक सिंहनी ने की भांति अपने दुश्मनों पर झपट रही थीं।
उनकी तलवार की चमक से अंग्रेज चकाचौंध हो रहे थे। ऐसा लग रहा था कि हिंदुस्तान के दुश्मनों का विनाश करने के लिए धरती पर स्वयं मां दुर्गा उतर आई हों। वह कहतीं थीं कि मैं अपनी झाँसी जीते जी किसी को न दूंगी। लड़ते-लड़ते हिंदुस्तान की वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई ने अपना सर कटा दिया लेकिन झुकाया नहीं, क्यों कि हम वह भारतीय हैं जो अपने देश और मातृभूमि के सम्मान के लिए वीरगति को प्राप्त होना, अपना सौभाग्य समझते हैं।