शौनक ऋषि ने पूछा, सूतनन्दन! आपने जिन जरत्कारु ऋषि का नाम लिया है, उनका जरत्कारु नाम क्यों पड़ा था? उनके नाम का अर्थ क्या है और उनसे आस्तिक का जन्म कैसे हुआ? उग्रश्रवा जी ने कहा, ‘जरा’ शब्द का अर्थ है क्षय, ’कारु’ शब्द का अर्थ है दारुण। तात्पर्य यह कि उनका शरीर पहले बड़ा दारुण अर्थात् हट्टा-कट्टा था।
जरत्कारु ऋषि की कथा
बाद में उन्होंने तपस्या कर के उसे जीर्ण-शीर्ण और क्षीण बना लिया। इसी से उनका नाम जरत्कारु पड़ा। ये संयोग की बात है कि वासुकि नाग की बहिन भी पहले वैसी ही थी। फिर उसने भी अपने शरीर को तपस्या के द्वारा क्षीण कर लिया, इसलिये वह भी जरत्कारु कहलायी। अब आस्तिक के जन्म की कथा सुनिये।
जरत्कारु ऋषि बहुत दिनों तक ब्रह्मचर्य धारण कर के तपस्या में संलग्न रहे। वे विवाह करना नहीं चाहते थे। वे जप, तप और स्वाध्याय में लगे रहते तथा निर्भय होकर स्वच्छन्द रूप से पृथ्वी पर विचरण करते। उन दिनों परीक्षित का राजत्व काल था। मुनिवर जरत्कारु का नियम था कि जहाँ सायंकाल हो जाता, वहीं वे ठहर जाते। वे पवित्र तीर्थों में जाकर स्नान करते और ऐसे कठोर नियमों का पालन करते, जिनको पालना विषयलोलुप पुरुषों के लिये प्राय: असम्भव है।
जरत्कारु ऋषि का अपने पितरों से मिलना
वे केवल वायु पीकर निराहार रहते। इस प्रकार उनका शरीर सूख-सा गया। एक दिन यात्रा करते समय उन्होंने देखा कि कुछ पितर नीचे की ओर मुँह किये एक गड्ढे में लटक रहे हैं। वे एक खस का तिनका पकड़े हुए थे और वही केवल बच भी रहा था। उस तिनके की जड़ को भी धीरे-धीरे एक चूहा कुतर रहा था। पितृगण निराहार थे, दुबले और दुःखी थे। जरत्कारु ने उनके पास जाकर पूछा, “आप लोग जिस खस के तिनके का सहारा लेकर लटक रहे हैं, उसे एक चूहा कुतरता जा रहा है।
आप लोग कौन हैं? जब खस की जड़ कट जायगी, तब आप लोग नीचे की मुँह किये गड्ढे में गिर जायेंगे। आप लोगों को इस अवस्था में देखकर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है। आपकी क्या सेवा करूँ? आप लोग मेरी तपस्या के चौथे, तीसरे अथवा आधे भाग से इस विपत्ति से बचाये जा सकें तो बतलावें और मैं अपनी सारी तपस्या का फल देकर भी आप लोगों को बचाना चाहता हूँ आप आज्ञा कीजिये।”
पितरों ने कहा, “आप बूढ़े ब्रह्मचारी हैं, हमारी रक्षा करना चाहते हैं, परन्तु हमारी विपत्ति तपस्या के बल से नहीं टल सकती। तपस्या का फल तो हमारे पास भी है, परन्तु वंश परम्परा के नाश के कारण हम इस घोर नरक में गिर रहे हैं। आप वृद्ध होकर करुणावश हमारे लिये चिन्तित हो रहे हैं, इसलिये हमारी बात सुनिये। हम लोग यायावर नाम के ऋषि हैं।
पितरों का, जरत्कारु ऋषि को विवाह करके संतान उत्पन्न करने का, आदेश देना
वंशपरम्परा क्षीण हो जाने से हम पुण्य लोकों से नीचे गिर गये हैं। हमारे वंश में अब केवल एक ही व्यक्ति रह गया है, वह भी नहीं के बराबर है। हमारे दुर्भाग्य से वह तपस्वी हो गया है, उसका नाम जरत्कारु है। वह वेद-वेदांगों का विद्वान् तो है ही, संयमी, उदार और व्रतशील भी है। उसने तपस्या के लोभ से हमें संकट में डाल दिया है। उसके कोई भाई-बन्धु अथवा पत्नी, पुत्र नहीं है। इसी से हम लोग बेहोश होकर अनाथ की तरह गड्ढे में लटक रहे हैं।
यदि वह आपको कहीं मिले तो उस से इस प्रकार कहना, ‘जरत्कारो! तुम्हारे पितर नीचे मुँह कर के गड्ढे में लटक रहे हैं। विवाह करके सन्तान उत्पन्न करो। अब हमारे वंश के तुम्ही एक आश्रय हो। ब्रह्मचारी जी! यह जो आप खस की जड़ देख रहे हैं, यही हमारे वंश का सहारा है। हमारी वंश परम्परा के जो लोग नष्ट हो चुके वही इसकी कटी हुई जड़ें हैं।
यह अधकटी जड़ जरत्कारु है जड़ कुतरने वाला चूहा महाबली काल है। यह एक दिन जरत्कारु को भी नष्ट कर देगा, हम लोग और भी विपत्ति में पड़ जायँगे। आप जो कुछ है वह सब जरत्कारु से कहियेगा। कृपा करके यह बतलाइये कि आप कौन हैं और हमारे बन्धु की तरह हमारे लिये क्यों शोक कर रहे हैं?’
पितरों का दुःख देख कर जरत्कारु ऋषि का विह्वल हो जाना
पितरों की बात सुनकर जरत्कारु को बड़ा शोक हुआ उनका गला रूँध गया, उन्होंने विह्वल वाणी से अपने पितरों से कहा, आप लोग मेरे ही पिता और पितामह हैं। मैं आप लोगों का अपराधी पुत्र जरत्कारु ही हूँ। आप लोग मुझ अपराधी को दण्ड दीजिये और मेरे करने योग्य काम बतलाइये।
पितरों ने कहा, “बेटा यह तो बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम संयोगवश यहाँ आ गये। भला, बतलाओ तो तुमने अब तक विवाह क्यों नहीं किया?” जरत्कारु ने कहा, “पितृगण! मेरे हृदय में यह बात निरन्तर घूमती रहती थी कि अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करके उच्च लोकों को प्राप्त करूँ। मैंने अपने मन में यह दृढ़ संकल्प कर लिया था कि मैं कभी विवाह नहीं करूँगा। परन्तु आप लोगों को उलटे लटकते देखकर मैंने अपना ब्रह्मचर्य का निश्चय पलट दिया है।
विवाह के लिए जरत्कारु ऋषि की शर्त
अब मैं आप लोगों के लिये निस्संदेह विवाह करूँगा। यदि मुझे मेरे ही नाम की कन्या मिल जायगी और वह भी भिक्षा की तरह, तो मैं उसे पत्नी के रूप में स्वीकार कर लूँगा, परन्तु उसके भरण पोषण का भार नहीं उठाऊँगा। ऐसी सुविधा मिलने पर ही मैं विवाह करूँगा, अन्यथा नहीं।
आप लोग चिन्ता मत कीजिये। आपके कल्याण के लिये मुझ से यह होगा और आप परलोक में सुख से रहेंगे। जरत्कारु अपने पितरों से इस प्रकार कह कर पृथ्वी पर विचरने लगे। परन्तु एक तो उन्हें बूढ़ा समझ कर कोई उनसे अपनी कन्या ब्याहना नहीं चाहता था और दूसरे उनके अनुरूप कन्या मिलती भी नहीं थी।
वे निराश होकर वन में गये और पितरों के हित के लिये तीन बार धीरे-धीरे बोले, मैं कन्या की याचना करता हूँ। यहाँ जो भी चर-अचर अथवा गुप्त या प्रकट प्राणी हैं, वे मेरी बात सुनें। मैं पितरों का दुःख मिटाने के लिये उनकी प्रेरणा से कन्या की भीख माँग रहा हूँ। जिस कन्या का नाम मेरा ही हो, जो भिक्षा की तरह मुझे दे दी जाय और जिस के भरण पोषण का भार मुझ पर न रहे, ऐसी कन्या मुझे प्रदान करें।
नागराज वासुकि की बहिन से जरत्कारु ऋषि का विवाह होना
वासुकि नाग के द्वारा नियुक्त सर्प जरत्कारु ऋषि की बात सुन कर नागराज के पास गये और उन्होंने चटपट अपनी बहिन, जिसका नाम भी जरत्कारु था, लाकर भिक्षा रूप से जरत्कारु ऋषि को समर्पित की। जरत्कारु ऋषि ने उसके नाम और भरण-पोषण की बात जाने बिना अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत उसे स्वीकार नहीं किया और वासुकि से पूछा कि इसका क्या नाम है? और साथ ही यह भी कहा कि मैं इसका भरण-पोषण नहीं करूंगा।
नागराज वासुकि ने कहा, इस तपस्विनी कन्या का नाम भी जरत्कारु है और यह मेरी बहिन है। मैं इसका भरण-पोषण और रक्षण करूँगा। आपके लिये ही मैंने इसे अब तक रख छोड़ा है। जरत्कारु ऋषि ने कहा मैं इसका भरण-पोषण नहीं करूँगा, यह शर्त तो हो ही चुकी। इसके अतिरिक्त एक शर्त यह है कि यह कभी मेरा अप्रिय कार्य न करे। करेगी तो मैं इसे अवश्य छोड़ दूंगा।’ जब नागराज वासुकि ने उनकी शर्त स्वीकार कर ली, तब वे उनके घर गये।
वहाँ विधिपूर्वक विवाह संस्कार सम्पन्न हुआ। जरत्कारु ऋषि अपनी पत्नी जरत्कारु के साथ वासुकि नाग के श्रेष्ठ भवन में रहने लगे। उन्होंने अपनी पत्नी को भी अपनी शर्त की सूचना दे दी कि मेरी रुचि के विरुद्ध न तो कुछ करना और न कहना। और अगर तुम वैसा करोगी तो मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊँगा। उन की पत्नी ने उनकी आज्ञा को स्वीकार किया और वह सावधान रहकर उनकी सेवा करने लगी। समय पर उसे गर्भ रह गया और धीरे-धीरे बढ़ने लगा।’
एक दिन की बात है। जरत्कारु ऋषि कुछ खिन्न-से होकर अपनी पत्नी की गोद में सिर रख कर सोये हुए थे। वे सो ही रहे थे कि सूर्यास्त का समय हो आया। ऋषि-पत्नी ने सोचा कि पति को जगाना धर्म के अनुकूल होगा या नहीं? ये बड़े कष्ट उठाकर धर्म का पालन करते हैं कहीं जगाने या न जगाने से मैं अपराधिनी तो नहीं हो जाऊँगी?
जगाने पर इन के कोप का भय है और न जगाने पर धर्म लोप का अन्त में वह इस निश्चय पर पहुँची कि ये चाहे कोप करें, परन्तु इन्हें धर्म लोप से बचाना चाहिये। ऋषि पत्नी ने बड़ी मधुर वाणी से कहा, “महाभाग! उठिये सूर्यास्त हो रहा है। आचमन करके सन्ध्या कीजिये यह अग्निहोत्र का समय है। पश्चिम दिशा लाल हो रही है।”
जरत्कारु ऋषि का अपनी पत्नी को त्याग कर चले जाना
ऋषि जरत्कारु जगे। क्रोध के मारे उनका होंठ काँपने लगा। उन्होंने कहा, “सर्पिणी! तूने मेरा अपमान किया है। अब मैं तेरे पास नहीं रहूँगा। जहाँ से आया हूँ, वहीं चला जाऊँगा। मेरे हृदय में यह दृढ़ निश्चय है कि मेरे सोते रहने पर सूर्य अस्त नहीं हो सकते थे। अपमान के स्थान पर रहना अच्छा नहीं लगता, अब मैं जाऊँगा।” अपने पति की हृदय में कैंपकँपी पैदा करने वाली बात सुनकर ऋषि-पत्नी ने कहा, भगवन! मैंने अपमान करने के लिये आपको नहीं जगाया है।
आपके धर्म का लोप न हो, मेरी यही दृष्टि थी। जरत्कारु ऋषि ने कहा, एक बार जो मुंह से निकल गया, वह झूठा नहीं हो सकता। मेरे तुम्हारे बीच इस प्रकार की शर्त तो पहले ही हो चुकी है। तुम मेरे जाने के बाद अपने भाई से कहना कि वे चले गये। यह भी कहना कि मैं यहाँ बड़े सुख से रहा। मेरे जाने के बाद तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करना।” ऋषि-पत्नी शोकग्रस्त हो गयी।
उसका मुँह सूख गया, वाणी विह्वल हो गयी। आँखों में आँसू भर आये। उसने काँपते हृदय से धीरज धरकर हाथ जोड़ कहा “धर्मज्ञ! मुझ निरपराध को मत छोड़िये। धर्म पर अटल रहकर आपके प्रिय और हित में संलग्न रहती हूँ। मेरे भाई ने एक प्रयोजन लेकर आपके साथ मेरा विवाह किया था। अभी वह पूरा नहीं हुआ हमारे जाति-भाई कद्रू-माता के शाप से ग्रस्त हैं आप से एक सन्तान उत्पन्न होने की आवश्यकता है।
आस्तिक मुनि का जन्म
उसी से हमारी जाति का कल्याण होगा। आपका और मेरा संयोग निष्फल नहीं होना चाहिये। अभी मेरे गर्भ से सन्तान भी तो नहीं हुई ! फिर आप मुझ निरपराध अबला को छोड़कर क्यों जाना चाहते हैं?” पत्नी की बात सुनकर ऋषि ने कहा, “तुम्हारे पेट में अग्नि के समान तेजस्वी गर्भ है। वह बहुत बड़ा विद्वान् और धर्मात्मा ऋषि होगा।” यह कहकर जरत्कारु ऋषि चले गये।
पति के जाते ही ऋषि-पत्नी अपने भाई वासुकि के पास गयी और उनके जाने का समाचार सुनाया। यह अप्रिय घटना सुनकर वासुकि को बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने कहा, बहिन! हमने जिस उद्देश्य से उनके साथ तुम्हारा विवाह किया था, वह तो तुम्हें मालूम ही है। यदि उनके द्वारा तुम्हारे गर्भ से पुत्र हो जाता तो नागों का भला होता। वह पुत्र ब्रह्मा जी के कथनानुसार अवश्य हो जनमेजय के यज्ञ से हम लोगों को रक्षा करता। बहिन! तुम उनके द्वारा गर्भवती हुई हो न?
हम चाहते हैं कि तुम्हारा विवाह निष्फल न हो। अपनी बहिन से भाई का यह पूछना उचित नहीं है, फिर भी प्रयोजन के गौरव को देखते हुए मैंने यह प्रश्न किया है। मैं जानता हूँ कि जब उन्होंने एक बार जाने की बात कह दी तो भी नहीं, कहीं वे मुझे शाप न दे दें। बहिन! तुम सब बात मुझसे कहो और मेरे हृदय से यह संकट का काँटा निकाल दो। ऋषि-पत्नी ने अपने भाई वासुकि नाग को ढाढ़स बँधाते हुए कहा, भैया! मैंने भी उनसे यह बात कही थी।
उन्होंने कहा है कि गर्भ है। उन्होंने कभी विनोद से भी कोई झूठी बात नहीं कही है। फिर इस संकट के अवसर पर तो उनका कहना झूठा हो ही कैसे सकता है। उन्होंने जाते समय मुझसे कहा कि नागकन्ये! अपनी प्रयोजन-सिद्धि के सम्बन्ध में कोई चिन्ता नहीं करना। तुम्हारे गर्भ से अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र होगा।
इसलिये भैया! तुम अपने मन में किसी प्रकार का दुःख न करो। यह सुनकर वासुकि बड़े प्रेम और प्रसन्नता से अपनी बहिन का स्वागत-सत्कार करने लगा और उसके पेट में शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान गर्भ भी बढ़ने लगा। समय आने पर वासुकि की बहिन जरत्कारु के गर्भ से एक दिव्य कुमार का जन्म हुआ। उसके जन्म से मातृवंश और पितृवंश दोनों का भय जाता रहा क्रमशः बड़ा होने पर उसने च्यवन मुनि से वेदों का सांगोपांग अध्ययन किया।
वह ब्रह्मचारी बालक बचपन में ही बड़ा बुद्धिमान् और सात्त्विक था। जब वह गर्भ में था, तभी पिता ने उसके सम्बन्ध में अस्ति (है) पद का उच्चारण किया था; इसलिये उसका नाम आस्तिक हुआ। नागराज वासुकि के घर पर बाल्य अवस्था में बड़ी सावधानी और प्रयत्न से उसकी रक्षा की गयी। थोड़े ही दिनों में वह बालक इन्द्र के समान बढ़कर नागों को हर्षित करने लगा।