काल बड़ा ही निर्दयी है | जैसे जैसे समय आगे बढ़ता है, वैसे वैसे ही पल-प्रहर, दिन-रात, माह-वर्ष, युग-कल्प आदि बदलते रहते हैं। इन सब के बदलने के बाद भी ईश्वर वही रहता है। जो कृतयुग, त्रेता और द्वापर में था, वही आज कलियुग में भी विद्यमान है।
वह तीनों काल में सत्य है तथा उसकी प्रकृति भी। उस प्रकृति में सूर्य हो या चंद्र, वायु हो या अग्नि, जल हो या पृथ्वी, आकाश हो या पाताल, बादल हो या बरसात, सर्दी हो या गर्मी-सभी का समावेश है। ये सभी प्रकृति में ही समाहित हैं और इन्हे कोई भी नहीं बदल सकता।
यद्यपि हमारे सनातन धर्म के शास्त्रों में श्री परमात्मा के चैबीस अवतार वर्णित हैं, फिर भी उन्हें कई बार भक्तों के लिये अनेक रूप धारण कर इस संसार में आना ही पड़ता है। कहते हैं कि महाराष्ट्र के भक्त नामदेव, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, एकनाथ एवं समर्थ गुरू रामदास आदि ने श्री परमात्मा के कई बार दर्शन किये थे।
एक लोकोक्ति के अनुसार केवल नामदेव जी को ही बहत्तर बार दर्शन प्राप्त हुआ था। यदि इस तथ्य को सही मान कर चलें तो इस धरा पर ऐसे भक्तों की कमी नहीं है, जिनके लिये वे स्वयं किसी न किसी रूप में आकर उनका कार्य सम्पन्न करते हैं अथवा उन्हें दर्शन दिया करते हैं।
एक बार किसी भक्त ने एक संत से पूछा “महाराज! क्या परमात्मा को इन आँखों से देख पाना सम्भव है”? इस पर वे संत शांत रहे। उसने फिर वही प्रश्न किया, संत फिर भी चुपचाप सुनते रहे। जब जिज्ञासु ने उनसे तीसरी बार पूछा तो संत मुसकराकर कहने लगे “वत्स! क्या तुम देखना चाहते हो या सिर्फ सुनने की इच्छा है”?
यह सुनते ही वह भक्त कुछ असमंजस में पड़ गया, लेकिन फिर कुछ सोच-समझ कर कहने लगा “महाराज! यदि दिखा सको तो सबसे अच्छा, अन्यथा बता दो तो भी ठीक है”। इस पर श्री संत जी ने उससे पूछा “तुम्हारा नाम क्या है”? उसने झट से उत्तर दिया ‘रामू’| संत ने उसका हाथ पकड़ कर पूछा “अच्छा यह क्या है”? तो उसने कहा ‘हाथ’। पाँव पकड़ कर पूछा ‘यह क्या है’? तो उसने कहा ‘पाँव’।
इस प्रकार वे शरीर के सभी अंगों को छूकर पूछते रहे और वह भक्त उन्हें बताता रहा। अन्ततः उस जिज्ञासु ने पूछा “महाराज! आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं”? तब संत ने कहा “प्यारे! मैं तो तुम्हारे शरीर में रामू को ढूँढ रहा था, लेकिन उसका तो कहीं पर भी अता-पता नही मिला”।
यह सुनकर उस जिज्ञासु ने कहा “महाराज! आप यह किस प्रकार की बात कर रहे हैं”? यह सुनकर संत ने कहा “मित्र! अभी तो तुमने कहा कि मैं रामू हूं, तो फिर वह कहां गया”? श्री संत ने कहा “रामू! जिस प्रकार तुम्हारा नाम इस शरीर में कहीं भी नहीं देखता है, वैसे ही श्री परमात्मा को भी इन आँखों से नहीं देखा जा सकता, यद्यपि वह सब में समाया हुआ है”।
संत ने फिर बताया “भगवान श्री कृष्ण ने गीता के पंद्रहवें अध्याय के सातवें श्लोक में कहा है-कि इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों का आकर्षण करता है। वत्स! यह श्लोक उन्होंने ऐसे ही थोड़े कहा होगा? श्री परमात्मा का हर वाक्य सार्थक और सत्य हुआ करता है लेकिन हमारी समझ में नहीं आता तो कोई क्या कर सकता है”?
संत ने आगे कहा “यदि तुम चाहो कि मै अपनी इन्ही आँखों से उसे देख सकूं, तो उसके लिये तुम्हें बहुत ही परिश्रम कर अभ्यास करना होगा। श्री परमात्मा तो नित्य प्रतिपल अवतार धारण किया करते हैं, लेकिन उन्हें देखने के लिये हमें ज्ञान के नेत्र की आवश्यकता पड़ती है।
जैसे विज्ञान के अनुसार जल की हर एक बूंद में कई छोटे-छोटे प्राणी रहते हैं, जिन्हें देखने के लिये हमें वैज्ञानिक सूक्ष्मदर्शी की जरूरत पड़ती है, वैसे ही सृष्टिकर्ता को देखने के लिये हमें ज्ञान नेत्रों ंकी आवश्यकता होती है। ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही उसे तत्व से जानते हैं-‘पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।’ (श्रीमद भागवतगीता 15।10)
संत की बात सुन कर शिष्य को प्रबोध हो गया और वह भगवान के शरणागत हो गया। उक्त आख्यान से यह स्पष्ट हो जाता है कि परमात्मा सर्वत्र व्याप्त हैं, उनके दर्शन के लिये उनकी कृपा का ही अवलम्बन लेने की आवश्यकता है।
आधुनिक युग में प्रत्येक मनुष्य श्री परमात्मा से विमुख होता जा रहा है और उनकी माया के सम्मुख होकर उसके पीछे दौड़ा-दौड़ा फिर रहा है। यद्यपि हर एक मनुष्य इस बात को समझता है कि अंत में कुछ भी हासिल नहीं होने वाला, लेकिन न जाने फिर भी वह ऐसा क्यों करता है। इसलिये हमेशा यह स्मरण रखना चाहिये कि न तो साथ में कुछ आया है और न ही साथ में कुछ जायगा |
इस सृष्टि में परमात्मा ने प्रत्येक मानव को अपना रूप देकर उसे मानो अपनी संतान बना दिया है, क्योंकि प्रकृति में चौरासी लाख योनियों में जो प्राणी जैसी आकृति का हुआ करता है, उसके बच्चे भी वैसा ही रूप धारण किया करते हैं जैसे कौऐ से कौआ तो कोयल से कोयल, हंस से हंस तो बक से बक, बैल से बैल तो बकरी से बकरी इत्यादि।
इस बात से यह साफ हो जाता है कि हम सभी ईश्वर के रूपवाले उसी की संतान हैं और उन्हें ही अपना पिता-माता आदि मानकर संसार में रहें तो फिर दुःखी होने का कोई मतलब नहीं है। परमात्मारूपी पिता तो सबको सुख ही पहुंचाता है|
यदि इस तथ्य को हम सत्य मान लें तो विचार करने की बात है कि इस मानव जगत में प्रतिदिन तो क्या प्रतिपल कोई न कोई मनुष्य अवश्य ही जन्म लेकर इस धरा पर आता है अर्थात यों कहें प्रतिपल मानो स्वयं जीवात्मारूप परमात्मा ही अवतरित हुआ करते हैं। अतः सबकी सेवा-पूजा को नारायण की सेवा-पूजा ही मानना चाहिये।
इस संसार में जिस प्रकार परमात्मा की पूजा-अर्चना होती है या भोग-प्रसाद का आयोजन हुआ करता है, वैसे ही भारतीय संस्कृति में महापुरूषों, आचार्यों अथवा संतों की भी पूजा-अर्चना हुआ करती है अर्थात श्री परमात्मा का विभूति-पद उनके भक्तों को भी प्राप्त हुआ करता है। इसीलिये भगवान ने स्वयं अपने मुख से भक्तों की महिमा बतया है
प्रकृति में श्री परमात्मा के अवतरण का यह नियम आदिकाल से अटल चलता आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा। यही कारण है कि भारतीय वाड्.मय में श्री परमात्मा को नित्यावतार माना गया है।