उग्रश्रवा जी कहते हैं, जनमेजय के यज्ञ में सर्पो का हवन होते रहने से बहुत से सर्प नष्ट हो गये केवल थोड़े से ही बच रहे। इस से वासुकि नाग को बड़ा कष्ट हुआ। घबराहट के मारे उनका हृदय व्याकुल हो गया उन्होंने अपनी बहिन जरत्कारु से कहा, ‘बहिन! मेरा अंग-अंग जल रहा है। दिशाएँ नहीं सूझ रहीं है। चक्कर आने के कारण बेहोश-सा हो रहा हूँ। दुनिया घूम रही है। कलेजा फटा जा रहा है। मुझे ऐसा दीख रहा है कि अब मैं भी विवश होकर इस धधकती आग में गिर जाऊँगा। इस यज्ञ का यही उद्देश्य है। मैंने इसी समय के लिये तुम्हारा विवाह जरत्कारु ऋषि से किया था।
आस्तिक (astik muni) का वासुकि को आश्वासन
अब तुम हम लोगों की रक्षा करो। ब्रह्मा जी के कथनानुसार तुम्हारा पुत्र आस्तिक (astik muni), इस सर्प यज्ञ को बंद कर सकेगा। वह बालक होने पर भी श्रेष्ठ वेदवेत्ता और वृद्धों का माननीय है। अब तुम उस से हम लोगों की रक्षा के लिये कह दो।’ अपने भाई की बात सुनकर ऋषि पत्नी जरत्कारु ने सब बात बतलाकर नागों की रक्षा के लिये आस्तिक को प्रेरित किया। आस्तिक ने माता की आज्ञा स्वीकार कर वासुकि से कहा, ‘नागराज! आप मन में शान्ति रखिये। मैं आप से सत्य-सत्य कहता हूँ कि उस शाप से आप लोगों को मुक्त कर दूंगा।
मैंने हास-विलास में भी कभी असत्य-भाषण नहीं किया है इसलिये मेरी बात झूठ न समझो। मैं अपनी शुभ वाणी से राजा जनमेजय को प्रसन्न कर लूँगा और वह यज्ञ बंद कर देंगे। मामाजी! आप मुझ पर विश्वास कीजिये। इस प्रकार वासुकि नाग को आश्वासन देकर आस्तिक सर्पो को मुक्त करने के लिये यज्ञशाला में जाने के उद्देश्य से चल पड़े। उन्होंने वहाँ पहुँचकर देखा कि सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी सभासदों से यज्ञशाला भरी है।
द्वारपालों ने उन्हें भीतर जाने से रोक दिया। अब वे भीतर प्रवेश पाने के लिये यज्ञ की स्तुति करने लगे। उनके द्वारा यज्ञ की स्तुति सुनकर जनमेजय ने उन्हें भीतर आने की आज्ञा दे दी। आस्तिक यज्ञमण्डप में जाकर यजमान, ऋत्विज्, सभासद् तथा अग्नि की ओर भी स्तुति करने लगे। आस्तिक के द्वारा की हुई स्तुति सुनकर राजा, सभासद्, ऋत्विज् और अग्नि सभी प्रसन्न हो गये। सबके मनोभाव को समझकर जनमेजय ने कहा, ‘यद्यपि यह बालक है, फिर भी बात अनुभवी वृद्धों के समान कर रहा है। मैं इसे बालक नहीं, वृद्ध मानता हूँ।
मैं इस बालक को वर देना चाहता हूँ, इस विषय में आप लोगों की क्या सम्मति है? ‘सभासदों ने कहा’ ब्राह्मण यदि बालक हो तो भी राजाओं के लिये सम्मान्य है। यदि वह विद्वान् हो, तब तो कहना ही क्या। अत: आप इस बालक को मुंहमांगी वस्तु दे सकते हैं। ‘जनमेजय ने कहा, ‘आप लोग यथाशक्ति प्रयत्न कीजिये कि मेरा यह कर्म समाप्त हो जाय और तक्षक नाग अभी यहाँ आ जाय। वही तो मेरा प्रधान शत्रु है।’ ऋत्विजों ने कहा, ‘अग्निदेव का कहना है कि तक्षक भयभीत होकर इन्द्र के शरणागत हो गया है। इन्द्र ने तक्षक को अभयदान भी दे दिया है।’
जन्मेजय के सर्प यज्ञ में क्या हुआ
जनमेजय ने कुछ दुःखी होकर कहा, ‘आप लोग ऐसा मन्त्र पढ़कर हवन कीजिये कि इन्द्र के साथ तक्षक नाग आकर अग्नि में भस्म हो जाय।’ जनमेजय की बात सुनकर होता ने आहुति डाली। उसी समय आकाश में इन्द्र और तक्षक दिखायी पड़े। इन्द्र तो उस यज्ञ को देखकर बहुत ही घबरा गये और तक्षक को छोड़कर चलते बने। तक्षक क्षण-क्षण अग्निज्वाला के समीप आने लगा। तब ब्राह्मणों ने कहा, ‘राजन्! अब आपका काम ठीक हो रहा है। इस ब्राह्मण को वर दे दीजिये।
जनमेजय ने कहा, ब्राह्मणकुमार! तुम्हारे, जैसे सत्पात्र को मैं उचित वर देना चाहता हूँ। अत: तुम्हारी जो इच्छा हो, प्रसन्नता से माँग लो। मैं कठिन से कठिन वर भी तुम्हें दे दूंगा।’ आस्तिक (astik muni) ने यह देखकर कि अब तक्षक अग्निकुण्ड में गिरने ही वाला है, उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाया। उन्होंने कहा, ‘राजन्! आप मुझे यही वर दीजिये कि आपका यह यज्ञ बंद हो जाय और इस में गिरते हुए सर्प बच जायँ।’ इस पर जनमेजय ने कुछ अप्रसन्न होकर कहा, ‘समर्थ ब्राह्मण! तुम सोना चाँदी, गौ और दूसरी वस्तुएँ इच्छानुसार ले लो।
मैं चाहता हूँ कि यह यज्ञ बंद न हो। ‘आस्तिक (astik muni) ने कहा’ मुझे सोना, चाँदी, गौ अथवा और कोई भी वस्तु नहीं चाहिये; अपने मातृकुल के कल्याण के लिये मैं आपका यज्ञ ही बंद कराना चाहता हूँ।’ जनमेजय ने बार-बार अपनी बात दुहरायी, परन्तु आस्तिक ने दूसरा वर माँगना स्वीकार नहीं किया। उस समय सभी वेदज्ञ सदस्य एक स्वर से कहने लगे, ‘यह ब्राह्मण जो कुछ माँगता है, वहीं इसको मिलना चाहिये।
आस्तिक मुनि की दुहाई
शौनक जी ने पूछा, सूतनन्दन! उस यज्ञ में तो बड़े विद्वान् ब्राह्मण थे। किन्तु आस्तिक (astik muni) से बात करते समय जो तक्षक अग्नि में नहीं गिरा, इसका क्या कारण हुआ? क्या उन्हें वैसे मन्त्र ही नहीं सूझे? उग्रश्रवा जी ने कहा, इन्द्र के हाथों से छूटते ही तक्षक मूर्छित हो गया। आस्तिक ने तीन बार कहा, ‘ठहर जा! ठहर जा! ठहर जा! इसी से वह आकाश और पृथ्वी के बीच में लटका रहा और अग्नि कुण्ड में नहीं गिरा।’ शौनक जी! सभासदों के बार-बार कहने पर जनमेजय ने कहा, ‘अच्छा, आस्तिक की इच्छा पूर्ण हो। यह यज्ञ समाप्त करो। आस्तिक प्रसन्न हों।
हमारे सूत ने जो कहा था, वह भी सत्य हो।’ जनमेजय के मुंह से यह बात निकलते ही सब लोग आनन्द प्रकट करने लगे। सभी को प्रसन्नता हुई। राजा ने ऋत्विज् और सदस्यों को तथा जो अन्य ब्राह्मण वहाँ आये थे, उन्हें बहुत दान दिया। जिस सूत ने यज्ञ बंद होने की भविष्यवाणी की थी। उसका भी बहुत सत्कार किया। यज्ञान्त का अवभृथ स्नान करके आस्तिक (astik muni) का खूब स्वागत-सत्कार किया और उन्हें सब प्रकार से प्रसन्न करके विदा किया। जाते समय जनमेजय ने कहा ‘आप मेरे अश्वमेध यज्ञ में सभासद् होने के लिये पधारियेगा।’आस्तिक ने प्रसन्नता से ‘तथास्तु’ कहा तत्पश्चात् अपने मामा के घर जाकर अपनी माता जरत्कारु आदि से सब समाचार कह सुनाया।
उस समय वासुकि नाग की सभा यज्ञ से बचे हुए सर्पों से भरी हुई थी। आस्तिक के मुँह से सब समाचार सुनकर सर्प बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उनपर प्रेम प्रकट करते हुए कहा, ‘बेटा! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।’ वे बार-बार कहने लगे,’ बेटा! तुमने हमें मृत्यु के मुँह से बचा लिया। हम तुम पर प्रसन्न हैं, कहो तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करें?’
आस्तिक मुनि का मंत्र
आस्तिक ने कहा, ‘मैं आप लोगों से यह वर माँगता हूँ कि जो कोई सायंकाल और प्रात:काल प्रसन्नतापूर्वक इस धर्ममय उपाख्यान का पाठ करे उसे सर्पों से कोई भय न हो।’ यह बात सुनकर सभी सर्प बहुत प्रसन्न हुए। उन लोगों ने कहा, ‘ प्रियवर! तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण हो। हम बड़े प्रेम और नम्रता से तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करते रहेंगे। जो कोई असित, आर्तिमान और सुनीथ मन्त्रों में से किसी एक का दिन या रात में पाठ कर लेगा, उसे सर्पों से कोई भय नहीं होगा। वे मन्त्र क्रमश: ये हैं,
“यो जरत्कारुणा जातो जरत्कारौ महायशाः। आस्तीकः सर्पसत्रे व: पन्नगान् योऽभ्यरक्षत। तं स्मरन्तं महाभागा न मां हिंसितमर्हथ।”
‘जरत्कारु ऋषि से जरत्कारु नामक नाग कन्या में आस्तिक नामक यशस्वी ऋषि उत्पन्न हुए। उन्होंने सर्प यज्ञ में तुम सर्पों की रक्षा की थी। महाभाग्यवान सर्पों ! मैं उनका स्मरण कर रहा हूँ। तुम लोग मुझे मत डॅसो।’
आस्तिक मुनि की आन मंत्र
“सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष। जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर।”
‘हे महाविषधर सर्प! तुम चले जाओ। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम जाओ। जनमेजय के यज्ञ की समाप्ति में आस्तिक ने जो कुछ कहा था, उसका स्मरण करो।’
“आस्तीकस्य वचः श्रुत्वा यः सर्पो न निवर्तते। शतधा भिद्यते मूर्ध्नि शिंशवृक्षफलं यथा॥”
जो सर्प आस्तिक के वचन की शपथ सुनकर भी नहीं लौटेगा, उसका फन शीशम के फल के समान सैकड़ों टुकड़े हो जायगा।’
धार्मिक शिरोमणि आस्तिक ऋषि ने इस प्रकार सर्प-यज्ञ से सर्पो का उद्धार किया। शरीर का प्रारब्ध पूरा होने पर पत्र-पौत्रादि को छोड़कर आस्तीक स्वर्ग चले गये। जो आस्तिक-चरित्र का पाठ या श्रवण करता है, उसे सर्पों का भय नहीं होता।