शौनक जी ने कहा, सूतनन्दन! महाभारत की कथा बड़ी ही पवित्र है। इस में पाण्डवों का यश गाया गया है। सर्प-सत्र के अन्त में जनमेजय की प्रार्थना से भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन ने वैशम्पायन जी को यह आज्ञा दी थी कि तुम वह कथा इन्हें सुनाओ। अब मैं वही कथा सुनना चाहता हूँ। वह कथा भगवान व्यास के मन:सागर से उत्पन्न होने के कारण सर्वरत्नमयी है। आप वही सुनाइये।
उग्रश्रवा जी ने कहा, शौनक जी! भगवान वेदव्यास के द्वारा निर्मित महाभारत आख्यान मैं आपको प्रारम्भ से ही सुनाऊँगा। उसका वर्णन करने में मुझे भी बड़ा आनन्द होता है। जब भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन को यह बात मालूम हुई कि जनमेजय सर्प-यज्ञ में दीक्षित हो गये हैं, तब वे वहाँ आये। भगवान व्यास का जन्म शक्तिपुत्र पराशर के द्वारा सत्यवती के गर्भ से यमुना की रेत में हुआ था। वे ही पाण्डवों के पितामह थे। वे जन्मते ही स्वेच्छा से बड़े हो गये और सांगोपांग वेद तथा इतिहासों का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
उन्हें जो ज्ञान प्राप्त हुआ था, उसे कोई तपस्या, वेदाध्ययन, व्रत, उपवास, स्वाभाविक शक्ति और विचार से नहीं प्राप्त कर सकता। उन्होंने ही एक वेद को चार भागों में विभक्त कर दिया। वे महान् ब्रह्मर्षि, त्रिकालदर्शी, सत्यव्रत, परम पवित्र एवं सगुण-निर्गुण स्वरूप के तत्त्वज्ञ थे। उन्ही के कृपा-प्रसाद से पाण्डु, धृतराष्ट्र और विदुर का जन्म हुआ था। उन्होंने अपने शिष्यों के साथ जनमेजय के यज्ञ-मण्डप में प्रवेश किया। उन्हें देखते ही राजर्षि जनमेजय झटपट सदस्यों के सहित उठकर खड़े हो गये और शिष्टाचारपूर्वक यज्ञ मण्डप में ले आये। उन्हें सुवर्ण सिंहासन पर बैठाकर विधिपूर्वक पूजा की।
अपने वंश-प्रवर्तक को पाद्य, आचमन, अर्ध्य और गौएँ देकर जनमेजय को बड़ी प्रसन्नता हुई। दोनों ओर से कुशल-मंगल के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हुए। सभी सभासदों ने भगवान व्यास की पूजा की और उन्होंने यथायोग्य सबका सत्कार किया।तदनन्तर जनमेजय ने सभासदों के साथ हाथ जोड़कर व्यास जी से यह प्रश्न किया, ‘भगवन! आपने कौरवों और पाण्डवों को अपनी आँखों से देखा था।
मैं चाहता हूँ कि आपके मुँह से उनका चरित्र सुनूँ। वे तो बड़े धर्मात्मा थे, फिर उन लोगों में अन बन का क्या कारण हुआ? उस घोर संग्राम के होने की नौबत कैसे आ गयी? उसके कारण तो प्राणियों का बड़ा ही विध्वंस हुआ है। अवश्य ही दैववश उनका मन युद्ध की ओर झुक गया होगा। आप कृपा करके मुझे उसका पूरा विवरण सुनाइये। ‘जनमेजय की यह बात सुनकर भगवान वेदव्यास ने पास ही बैठे हुए अपने शिष्य वैशम्पायन से कहा, ‘वैशम्पायन! कौरव और पाण्डवों में जिस प्रकार फूट पड़ी थी, वह सब तुम मुझ से सुन चुके हो।
अब वही बात तुम जनमेजय को सुना दो। ‘अपने पूज्य गुरुदेव की आज्ञा सुनकर भरी सभा में वैशम्पायन जी ने कहना प्रारम्भ किया। वैशम्पायन जी ने कहा, मैं संकल्प, विचार और समाधि के द्वारा गुरुदेव को नमस्कार करता हूँ तथा सभी ब्राह्मण और विद्वानों का सम्मान करके परम ज्ञानी भगवान व्यास का मत सुनाता हूँ। भगवान व्यास के द्वारा निर्मित यह इतिहास बड़ा ही पवित्र और विस्तृत है।
उन्होंने पुण्यात्मा पाण्डवों की यह कथा एक लाख श्लोकों में कही है, इसके वक्ता और श्रोता उच्च लोकों में जाकर देवताओं के समकक्ष हो जाते हैं। यह पवित्र और उत्तम पुराण वेद-तुल्य है, सुनने योग्य कथाओं में सर्वोत्तम है और बड़े-बड़े ऋषियों ने इसकी प्रशंसा की है। इस इतिहास-ग्रन्थ में अर्थ और काम की प्राप्ति के धर्मानुकूल उपाय बतलाये गये हैं तथा इससे मोक्षतत्त्व को पहचानने वाली बुद्धि भी प्राप्त हो जाती है।
इसके श्रवण, कीर्तन से मनुष्य सारे पापों से छूट जाता है। इस इतिहास का नाम ‘जय’ है। संसार पर परम विजय अर्थात् कल्याण प्राप्त करने के इच्छुकों को इसका श्रवण करना चाहिये। यह धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र-सब कुछ है। जो इसका श्रवणवर्णन करते हैं, उनके पुत्र सेवक और सेवक स्वामिभक्त हो जाते हैं। जो इसका श्रवण करते हैं उनके वाचिक, मानसिक और शारीरिक पाप नष्ट हो जाते हैं।
इसमें भरतवंशियों के महान् जन्म की गाथा है, इसलिये इसको महाभारत कहते हैं। जो इस नाम का व्युत्पत्तियुक्त अर्थ जानता है, वह सारे पापों से छूट जाता है। भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन प्रतिदिन प्रात:काल उठकर स्नान सन्ध्या आदि से निवृत्त हो इसकी रचना करते थे, इस प्रकार तीन वर्ष में यह पूरा हुआ था। इसलिये ब्राह्मणों को भी नियम में स्थित होकर ही इस कथा का श्रवण-वर्णन करना चाहिये।
जैसे समुद्र और सुमेरु रत्नों की खान हैं, वैसे ही यह ग्रन्थ कथाओं का मूल उद्गम है। इसके दान से सारी पृथ्वी के दान का फल मिलता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सम्बन्ध में जो बात इस ग्रन्थ में है, वही सर्वत्र है। जो इसमें नहीं है, वह और कहीं नहीं है। इसलिये आप लोग यह कथा पूरी-पूरी सुनें।